Monday 5 November 2012

तीर्थों में भटकने से ईश्वर नहीं मिलता

बहुत से लोग एक एक पैसा जोड़कर तीर्थयात्रा की योजना बनाते रहते हैं। इस कारण से वे अपने व्यक्तिगत जीवन की बहुत सी खुशियों की आहुति भी दे देते हैं। लेकिन सोच कर देखिए क्या ईश्वर तीर्थयात्रा करने से प्राप्त हो जाता है। जब आप अपनी छोटी-छोटी खुशियों को मार कर तीर्थयात्रा के लिए धन जमा करते हैं तो ईश्वर को खुशी होती है। आपका अंतर्मन जवाब देगा नहीं‍।

कबीर दास जी ने कहा है 'कस्तूरी कुण्डल बसे, मृग ढूंढे बन माही, ऐसे, घटि-घटि राम हैं, दुनिया देखे नाहि'। तीर्थों में ईश्वर को ढूंढने वाले लोगों के लिए ही संत कबीर ने ऐसा कहा है। कबीरदास जी समझाते हैं कि कस्तूरी मृग जिस तरह अपने अंदर छुपी कस्तूरी को जान नहीं पाता है और कस्तूरी की सुंगध की ओर आकर्षित होकर वन में भटकता रहता है। हम मनुष्य भी ऐसे ही अज्ञानी हैं। ईश्वर हमारे अंदर बसा होता है और उसे मन में तलाशने की बजाय दूर पहाड़ों और जंगलों में ढूंढते फिरते हैं।

अपने एक अन्य दोहे में कबीरदास जी ने यह समझाने का प्रयास किया है कि आपस में किसी से द्वेष नहीं करना चाहिए। सभी मनुष्य ईश्वर के ही प्रतिबिंब हैं। 'नर नारायण रूप है, तू मति जाने देह। जो समझे तो समझ ले, खलक पलक में खेह। अर्थात हम जिसे मात्र शरीर मानते है वह तो नारायण का रूप हैं। क्योंकि हर व्यक्ति में आत्म रूप में नारायण बसते हैं। अगर इस रहस्य को समझ सको तो समझ लो अन्यथा जब शरीर नष्ट होगा तो कुछ नहीं बचेगा। तुम मिट्टी में मिल चुके होगे और शेष रहेगा तो सिर्फ आत्मा जो नारायण रूप है।

भगवान श्री कृष्ण ने भी गीता के दसवें अध्याय में कहा है कि 'अहमात्मा गुडाकेश सर्वभूताशयस्थितिः' हे गुडाकेश अर्जुन, मैं सभी जीवों में आत्मा रूप में विराजमान रहता हूं। गीता के पांचवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कर्मयोग को समझाते हुए कहा है कि 'ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषा नाशितमात्मनः। तेषामादित्यावज्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्।। इस श्लोक का तात्पर्य है जो व्यक्ति ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को अपने अंदर जान लेता है उसके सामने परमात्म तत्व सूर्य की रोशनी से जैसे सब कुछ प्रकाशमान हो जाता है उसी प्रकार परमात्मा उसके समाने दृश्यगत होता है अर्थात साक्षात प्रकट रहता है।  

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